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मुक्तक

  नदी की तीव्र धारा है चले आओ चले आओ।  नहीं दिखता किनारा है चले आओ चले आओ।  हरे! उद्यत हुआ अर्जुन खड़ग बस त्याग देने को,  उसी ने फिर पुकारा है चले आओ चले आओ। © ऋतुपर्ण

छठ पर्व(कविता)

हो गए नवीन सारे जीर्ण जलाशय-सरित औ' पोखर, ज्यों परम पावन हुए सभी,समग्र अपने पाप धोकर। सब हट गए शैवाल कुंभी जंजाल जल के बीच से, मुसक पड़ा मुरझा हुआ कमल भी मुग्ध होकर कीच से। जगने लगी नव-नव लहरियाँ पवन के मृदु थाप पाकर, लौट आने लगी फिर वे पुलिनों से जाकर,टकराकर।१। निशिचर के पथिक वे श्रांत तारे, उडुग्गन आकाश में, दिखने लगे चंद्र क्षीण-ज्योत दीप के प्रबल प्रकाश में। गलने लगा तम रात का फिर नव भोर की बेला हुई। ज्योति की संजीवनी ने सघन तम में चेतनता छुई। जलद अवलियों में दृष्टिगत हुई उषा काल की लाली, शनै: - शनै: प्रकट हुई रवि की छवि अतीव आभाशाली।२। जल में खड़े नर-नारी सब जन अर्घ-जल देने लगे, शीश पर आशीष-युत-कर अंशुमाली की लेने लगे। गूँजने लगे  सभी  ओर  मंत्रोचार  वैदिक  सूक्तियाँ, अर्पण हुए आदित्य पर पकवान व्यंजनादि भुक्तियाँ। नत नमन करबद्ध सारे जन खड़े होकर भक्ति भाव से, देखते फल, व्यंजन, ठेकुआ  बच्चे  बड़े  ही  चाव से।३। ©ऋतुपर्ण

कविता

 अहो देव दयानिधे  करूणेश ! असहाय तुम छोड़ गए किस देश? हमारे सब आर्तनाद चीत्कार। लौटे प्रतिध्वनि बनकर हर बार। खोजे पूजालय सब बहु प्रकार, वे  करवाते  थकते  न मनुहार। नक्षत्र,चंद्र और  तारक  लोक, है देख चुके हम सब विलोक! नहीं मिलती कहीं तुम्हारी थाह, फिर भी बलवती रहती है चाह! हे राम,कृष्ण,बुद्ध हरि-अवतंस। इस बार उद्भूत हुए  किस वंश? भव्य-भूमि-भव भर के धर्म केतु, मनुज-मनुज के सद्भाव सु-सेतु। पूछूँ यदि मिले हमें किसी ठौर, क्या यही तुम्हारा मित्रवत-तौर? जाते हो  कूप  के  तल  में बोर, हमें हा  किसके  हाथों  में छोड़! किस हेतु हमें इस भव रव में झोंक, छिप जाते हो किस लोक के ओक! ©ऋतुपर्ण

दुष्कर्म के घटनाओंं पर

 हा ! हा ! चित्त  को  बेधता   है, बेधता   है  मर्म  को। धिक्कार है सौ बार  उस  दुष्कर्म  को, उस  धर्म  को। सिखला रहे जो खींचना युवती सती के  लाज  को। धिक्कार है उस मनुज को भी और सभ्य-समाज को। है पनपते ये कीट नित- नित  ढीठ  होते  जा  रहे। वे सभ्यता के अहितकर हैं, सभ्यता को खा  रहे। बन घूमता है भेड़ियाँ अब भेड़  के  ही  स्वांग में। हो सावधान सभी! नहीं तो नोच खाय छलाँग में। श्रृंगाल ज्यों मृत  जीव  खाता है बड़े  ही  चाव  से। छि:! आज मानव नोंचते है मनुज को उस भाव से। दुष्कर्म  की  यह बात  ऐसे  तीव्र  होती  जा   रही। अब  प्रेम  से  भी  देखने  में  आप  लज्जा  आ  रही। कुछ मनुज ने ही है किया नत मस्तकें निज जाति की । लूटा  दिया  सत्कर्म, मानव- धर्म, थाती  जाति  की। ओ   जागिये   धर्मेश  सारे  राज   कैसे  हो  रहे! हे अबल  के  रक्षक  प्रणेता,  न्यायदाता सो रहे? गांडीवधारी श्रेष्ठ अर्जुन  लक्ष्य  का  भेदन करो। इन निंद्य पातक पामरों के कंठ अब छेदन करो। हे भीम ! जागो  द्रौपदी  फिर  नग्न  की है जा रही। तुमको भला इस काल भी क्यों नींद प्यारी आ रही! ओ जागिये हे कृष्ण प्रभुवर! आज सब  क्यों सो रहे? सब सो रहे

लाल बहादुर शास्त्री

              ॥आल्हा छन्द॥                     (बाल-कविता)  बापू के जन्मदिवस दिन ही,एक नायक जन्मे महान। इतिहास उन्हें  दुहराता  है,आओ  करें  सभी गुणगान। शान्ति क्रांति थी दोनों जिसमें, होता भय से अरि लाचार। सादा   परिधान  पहनते  थे,पर  रखते  वे  उच्च  विचार। यह उनका प्रसिद्ध नारा था,जय जवान और जय किसान। हो कृषि  मूलाधार   देश की,एवं  जवान  रक्षक  महान। भारत पर सर्वस्व निछावर,किया बूंद-बूंद रक्त-स्वेद! उनके कथनी औ करनी में,किंचित मात्र नहीं थे भेद। छोटी उनकी कदकाठी थी,पर वे स्वयं थे कर्मवीर। भाँपते दीनता से अपनी ,दीन दलित सबके ही पीड़। भारत के नेता थे  ऐसे,जिनके  शब्दों में  थे  ज्वाल। "भारत छोड़ो" में बोला था,मरो नहीं, मारो बन काल! चौसठ के हिन्द-पाक रण में,सेना पहुँचा दी लाहौर। ऐसे दृढ़ संकल्पित जन थे,भयाकुल हो बदला न तौर। याद रखो नन्हे "नन्हे" के,एक से एक बढ़ आदर्श। जीवन मे अनुसरण करो रे,उनको तुम सप्रेम सहर्ष! -ऋतुपर्ण

स्वंतंत्रता वीर

 छप्पय छन्द छः चरणों का मात्रिक छन्द है।इसमें रोला के चार तथा अंतिम दो चरण उल्लाला की होती हैं।रोला में ११-१३ पर यति (विराम) होती है,जबकि उल्लाला में १५-१३ पर। ★ध्यान देने योग्य बिंदु- ●रोला में गण क्रम पर नहीं कलन पर ध्यान देना होता है। इसके विषय चरण(प्रथम और तृतीय) में १३ मात्राएं रखे जाते है सम चरण(द्वितीय और चतुर्थ) में ११ मात्राएँ रखे जाते हैं।और चरणान्त में दो गुरु अनिवार्य है। विषम चरण का कलन क्रम-चौकल चौकल त्रिकल(४ ४ ३) और सम चरण का क्रम- त्रिकल द्विकल चौकल चौकल(३ २ ४ ४) ●उल्लाला में १५-१३ पर यति होती है।यहाँ विषम और सम चरण में, १३वीं और ११वीं मात्रा क्रमशः लघु रखी जाती है। यह मौलिक रचना आपके सम्मुख समीक्षार्थ प्रस्तुत है। मातृभूमि के अर्थ,अभय हो शीश चढ़ाया। निज जीवन जो त्याग,राग राष्ट्र हेतु गाया। बलिवेदी पर चढ़े,देश की जय-जय गाते। ऐसे अमर सपूत,युगों में विरले आते। उन बलिदानी का त्याग भी,होता चिर-स्मरणीय है। उनकी कृति भावी  के  लिए,निश्चित अनुकरणीय है। जिसके उर में प्रेम,और स्वातंत्र्य  बसा हो। देश हितैषी कार्य की प्रबल बहु ईप्सा  हो। लहू शिरा बस राष्ट्र प्रेम लेकर धाती हो। बाल्

नील जलद

  नील जलद ओ नील जलद ! नभ भर उड़ते क्यों पर पसार? पंखहीन  आकृति  विहीन  हो जाते लुकछिप बार-बार! क्षितिज असीम ,तुम लघु क्षीण, चलते थकते  क्या नहीं पाँव? किसे खोजने निकल चले हो, जाते क्योंकर तुम शहर-गाँव? नील जलद ओ  नील  जलद ! नभ भर उड़ते क्यों पर पसार? नील नदी  के  मीन  चपल, उर में रखकर अनुराग-भार । प्रेम  लुटा  आने  को  क्या, जाते हो सब के द्वार-द्वार? नील जलद ओ नील जलद ! नभ भर उड़ते क्यों पर पसार? लेकर  आते  हो  अथवा, विरह मिलन के प्रेम-उपहार। या  पलकें थाम  न  पाती, तेरे अपने  दुःख  के  भार? नील जलद ओ नील जलद ! नभ भर उड़ते क्यों पर पसार? -ऋतुपर्ण