गाँव की साँझ
■कविता■ एक साँझ गाँव में लेटा हुआ पीठ के बल खाट पर, अनिमिष ही लगा निहारने मैं क्षितिज पुतली में भरकर। तिरोभूत हो गए रवि, थे शशांक हो रहे भासमान पश्चिम में बिखरे गेरू -सा दीखने लगा आसमान। लौट रहे सब श्रांत प्राणधर अपने रैन बसेरे में, चहक उठे पंछी गण अपने नीड़, कोटरे, डेरे में। लगी ज्योत्स्ना छाने औ' रूपहले रूप तारक दिखाने, खे-खेकर पालों की नौका पार पवन लगे लगाने। विद्युत की प्रभूत प्रभास में छिटपुट जुगनू तेजहीन, थे झीं-झीं करते चहुओर गिटार लिए झींगुर-प्रवीण। कीट-पतंगे नाच- नाचकर ना जाने क्या पाते थे, उलूक तथा चमगादड़ गगन में करतब दिखलाते थे। शरभ प्राण के दाँव लगा बल्बों के घूर्णन करते थे, भीतों पर छिपकली छिप- छिपकर आखेटन करते थे। ©ऋतुपर्ण