Posts

Showing posts from August, 2020

गाँव की साँझ

  ■कविता■ एक साँझ गाँव में लेटा हुआ   पीठ के  बल  खाट पर, अनिमिष ही लगा निहारने  मैं क्षितिज पुतली में भरकर। तिरोभूत  हो  गए  रवि, थे   शशांक  हो रहे भासमान पश्चिम में  बिखरे  गेरू -सा   दीखने  लगा  आसमान। लौट रहे  सब  श्रांत  प्राणधर   अपने  रैन  बसेरे  में, चहक उठे  पंछी  गण  अपने   नीड़, कोटरे, डेरे  में। लगी ज्योत्स्ना छाने औ'  रूपहले रूप तारक दिखाने, खे-खेकर पालों की  नौका   पार  पवन  लगे  लगाने। विद्युत की प्रभूत प्रभास में  छिटपुट जुगनू तेजहीन, थे झीं-झीं करते चहुओर  गिटार लिए झींगुर-प्रवीण। कीट-पतंगे  नाच- नाचकर  ना  जाने  क्या पाते थे, उलूक तथा चमगादड़  गगन में करतब दिखलाते थे। शरभ प्राण के दाँव लगा   बल्बों के घूर्णन करते थे, भीतों पर छिपकली छिप- छिपकर आखेटन करते थे। ©ऋतुपर्ण

कोरोना

    कोरोना महामारी    *हास्य*   ठहरी हुई जिंदगी किस दिन पहिए घुरकाएगी? भीड़,गाड़ियाँ,हाट-मंडियाँ पहले-सी छाएगी। फिर होगें धर कब एक और मुंड बसों में दो-दो! मेट्रो व रेलगाडियाँ,मालगाड़ी बन कब धाएँगी? कब होंगें रेलमपेल पूर्व के-से भीड़-भड़क्का? देह रगड़ कर त्वचा छील ले ऐसी धक्कम-धक्का। तोंद तोंद से भिड़ जाए औ' कोहनी से कोहनी, सीटें अतिक्रमण के क्रम में हो कब मुक्कम-मुक्का! स्वेद-कण लहू-सदृश तप्त;अयास ही टपक उठे फिर। मोजे की गंध सड़ायँध लाशों-सी महक उठे फिर। अविराम रहें सड़कों पर वाहन की आवाजाही। भोंपू के स्वर कर्कशता से माथे टहक उठे फिर। हाटों तथा मंडियों में पुनः लगे जोर के बोल, कुँजड़िन भाजी के गुणगान कर,दे तरकारी मोल। "दस के पाव,चालीस किलो;न्यूनतम आधा ले लो। भैया विचार क्यों?धनिया भी मुफ्त की दे दूं  तोल!" यदि मिले मित्र से मित्र आलिंगन हो,न अभिवादन। कर सके बेधड़क फिर हम "गली-भोज्य" का आस्वादन। मंजुल मुख से हटे आवरण श्वास रोधने वाला, अब तो बस अविलंब हो इस दुर्घट दुःख का मर्दन। ©ऋतुपर्ण

अपील(कहानी)

Image
  कहानी -------- शाम का प्रहर था।अभी सूरज का अस्ताचल गमन हुआ ही था,उसके उपरांत भी उसकी लोहित आभा अभी गाँव की धरती पर सुर्ख-झीना चादर ओढ़ाए थी। तभी यकायक गाय रंभाने लगी।हवेली में कृष्णाष्टमी की पूजा का धूम मचा था।अतएव व्यस्त होने के कारण गोपालक,माघव चौधरी, ने तत्काल कारण जानना उचित नहीं जाना और अनसुना कर कार्यरत रहे। सुलेखा देवी कुर्सी पर बैठी-बैठी पुत्र को संबोधन करती बोलीं-"अरे माघव,जरा देख आ इस गैया को क्या हुआ?" बिजली के बोर्ड से पिन जोड़ते हुए माघव बोला-"रहने भी दो...हमें कन्हैया की पड़ी है और तुम गैया गैया गैया..." "पशु का अकारण इस प्रकार विलखना ठीक नहीं जान पड़ता।" उसकी तरफ मुँह कर कड़कर-"इतनी ही चिंता है तो बथान देख क्यों नहीं आती!" "मैं जोड़ो के दर्द से मरी जा रही हूँ।घूमना-टहलना तो दूर बस चल फिर लेती हूँ...ईश्वर की कृपा है।"- घुटने पकड़कर दीन भाव से बोली। बिजली का बल्ब लगाते हुए- "ये कौन सी नई बात है!परिवार भर में कौन है जो इसका मारा न हो...बाबूजी,बिट्टू,मैं,उसकी माँ सब तो वैसे ही हैं।" "सब भाग्य का दोष है और पूर्वजन्म