छठ पर्व(कविता)


हो गए नवीन सारे जीर्ण जलाशय-सरित औ' पोखर,
ज्यों परम पावन हुए सभी,समग्र अपने पाप धोकर।
सब हट गए शैवाल कुंभी जंजाल जल के बीच से,
मुसक पड़ा मुरझा हुआ कमल भी मुग्ध होकर कीच से।
जगने लगी नव-नव लहरियाँ पवन के मृदु थाप पाकर,
लौट आने लगी फिर वे पुलिनों से जाकर,टकराकर।१।



निशिचर के पथिक वे श्रांत तारे,उडुग्गन आकाश में,

दिखने लगे चंद्र क्षीण-ज्योत दीप के प्रबल प्रकाश में।
गलने लगा तम रात का फिर नव भोर की बेला हुई।
ज्योति की संजीवनी ने सघन तम में चेतनता छुई।
जलद अवलियों में दृष्टिगत हुई उषा काल की लाली,
शनै: - शनै: प्रकट हुई रवि की छवि अतीव आभाशाली।२।


जल में खड़े नर-नारी सब जन अर्घ-जल देने लगे,
शीश पर आशीष-युत-कर अंशुमाली की लेने लगे।
गूँजने लगे  सभी  ओर  मंत्रोचार  वैदिक  सूक्तियाँ,
अर्पण हुए आदित्य पर पकवान व्यंजनादि भुक्तियाँ।
नत नमन करबद्ध सारे जन खड़े होकर भक्ति भाव से,
देखते फल, व्यंजन, ठेकुआ  बच्चे  बड़े  ही  चाव से।३।


©ऋतुपर्ण


Comments

Popular posts from this blog

मधुमालती छन्द

लाल बहादुर शास्त्री

गाँव की साँझ