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Showing posts from September, 2020

नील जलद

  नील जलद ओ नील जलद ! नभ भर उड़ते क्यों पर पसार? पंखहीन  आकृति  विहीन  हो जाते लुकछिप बार-बार! क्षितिज असीम ,तुम लघु क्षीण, चलते थकते  क्या नहीं पाँव? किसे खोजने निकल चले हो, जाते क्योंकर तुम शहर-गाँव? नील जलद ओ  नील  जलद ! नभ भर उड़ते क्यों पर पसार? नील नदी  के  मीन  चपल, उर में रखकर अनुराग-भार । प्रेम  लुटा  आने  को  क्या, जाते हो सब के द्वार-द्वार? नील जलद ओ नील जलद ! नभ भर उड़ते क्यों पर पसार? लेकर  आते  हो  अथवा, विरह मिलन के प्रेम-उपहार। या  पलकें थाम  न  पाती, तेरे अपने  दुःख  के  भार? नील जलद ओ नील जलद ! नभ भर उड़ते क्यों पर पसार? -ऋतुपर्ण

सुनो री चिड़ियाँ!

 ---चौपाई छन्द--- अरी  सुनो  री  प्यारी चिड़ियाँ। तेरी     पाँखें    हैं    पंखुड़ियाँ। डाली-डाली फुदक-फुदक कर, गाती जाती  क्या  री  चिड़ियाँ? कभी   फूल  में  चोंच  डुबाकर। कभी चिहुँक कर,कभी लजाकर।। मेरे    आँखों   आँख   बचाकर, इतना  मत  इठला  री  चिड़ियाँ। माना  तुमको  भी  घर  जाना। लेकिन फिरसे  वापस  आना। इस   बगिया  की   टहनी   तेरी, इन्हें भूल ना जा  री  चिड़ियाँ! ©ऋतुपर्ण

अहिंसा परमो धर्म

आज इस प्रेषण के अंतर्गत 'सनातन' के कुछ बिंदुओं पर प्रकाश डालने का भरसक प्रयत्न रहेगा। मानता हूँ मैं अल्पज्ञानी हूँ और इस योग्य भी नहीं कि वैदिक ग्रंथों पर टीका-टिप्पणी कर सकूँ,फिर भी प्रयास करूंगा।इस हठधर्मिता और दम्भिकता के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ। "अहिंसा परमो धर्मः---"यह सूक्ति महाभारत से उद्धरित है,यह अपूर्ण है और उसी रूप में है,जिस रूप में अधिकांशतः लोगों को विदित होगा। पूर्ण श्लोक इस प्रकार है :- "अहिंसा परमो धर्मः। धर्म हिंसा तथैव चः।।" अर्थात-अहिंसा के जैसा कोई धर्म नहीं,धर्म संरक्षण के लिए की गई हिंसा भी धर्म है। मुझे लगता है,कई लोग इस अर्थ का अनर्थ निकालने लगेंगे।कुछ तो ये भी कह बैठेंगे कि देखो सनातन में भी 'जिहाद'!पर बंधुओं और भगिनियों! मन-नद्य के पुलिनों पर धैर्य के बाँध बांधे रखो। 'धर्म' शब्द की व्यापकता आंग्ल शब्द 'रिलिजन' में नहीं समाहित की जा सकती।यह शब्द इतना व्यापक है कि कई पुस्तकालय इसके विश्लेषण से भर जाएं,क्योंकि प्रत्येक जीव का अपना धर्म है-पशुओं का,पक्षियों का,सरीसृपों का,यहाँ तक कि जीवाणुओं का भी!मानव के धर्म अन्

प्रेम

  मेरा ह्दय भी प्रेमयुत है, हा! जो  दीखता पाषाण, सच, यह मेरी कहानी मान। प्रथम-दृष्ट्वा ही भा गई वह, मेधा-सदृश बन,छा गई वह। होने लगी सब ओर ही, उसकी सुरूचि छवि विद्यमान। वर्ण अतीव गौर-दधिमुख था; उसे देख पाता चिर-सुख था। मानस में उसकी छवि थी, प्रत्यक्ष-परोक्ष सभी समान। वह रूपवती व गुणवती थी, अतुल असाधारण भवती थी। नाम के अनुरूप सत्तम- रमणी,थी शील का प्रतिमान। संध्या-सधनतम  केश उसके, कपोल थे अरुण-देश,उसके अलक लपकते साँप सदृश, दंशते   रहते   मेरे   प्राण !   उसके नयन थे मीन-चंचल, मुख-हाव-भाव थे सरिता-जल। उसके कौमुदी-हास पर, पिघल जाता कोई पाषाण! गाती थी जब पद्य-ऋचाएं! कैसे तुम्हें?क्या-क्या बताएं? मानो वीणा के तार से- मृदुरस,झंकार उठते तान। वाद्य पर करती थी अभ्यास, किया करती वो हास-विहास। स्मृति मात्र से भर आते, हैं आज  भी  ये   मेरे   कान। माना मार्ग कुछ बँट से गए, हम अवश्य कुछ कट से गए। उसके परिचित-जन से ही- सुना;लेती थी मेरा भान। सच यह मेरी कहानी मान। ©ऋतुपर्ण