कविता

 अहो देव दयानिधे  करूणेश !
असहाय तुम छोड़ गए किस देश?
हमारे सब आर्तनाद चीत्कार।
लौटे प्रतिध्वनि बनकर हर बार।


खोजे पूजालय सब बहु प्रकार,
वे  करवाते  थकते  न मनुहार।
नक्षत्र,चंद्र और  तारक  लोक,
है देख चुके हम सब विलोक!


नहीं मिलती कहीं तुम्हारी थाह,
फिर भी बलवती रहती है चाह!
हे राम,कृष्ण,बुद्ध हरि-अवतंस।
इस बार उद्भूत हुए  किस वंश?


भव्य-भूमि-भव भर के धर्म केतु,
मनुज-मनुज के सद्भाव सु-सेतु।
पूछूँ यदि मिले हमें किसी ठौर,
क्या यही तुम्हारा मित्रवत-तौर?


जाते हो  कूप  के  तल  में बोर,
हमें हा  किसके  हाथों  में छोड़!
किस हेतु हमें इस भव रव में झोंक,
छिप जाते हो किस लोक के ओक!


©ऋतुपर्ण

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