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सुनो री चिड़ियाँ!

 ---चौपाई छन्द--- अरी  सुनो  री  प्यारी चिड़ियाँ। तेरी     पाँखें    हैं    पंखुड़ियाँ। डाली-डाली फुदक-फुदक कर, गाती जाती  क्या  री  चिड़ियाँ? कभी   फूल  में  चोंच  डुबाकर। कभी चिहुँक कर,कभी लजाकर।। मेरे    आँखों   आँख   बचाकर, इतना  मत  इठला  री  चिड़ियाँ। माना  तुमको  भी  घर  जाना। लेकिन फिरसे  वापस  आना। इस   बगिया  की   टहनी   तेरी, इन्हें भूल ना जा  री  चिड़ियाँ! ©ऋतुपर्ण

अहिंसा परमो धर्म

आज इस प्रेषण के अंतर्गत 'सनातन' के कुछ बिंदुओं पर प्रकाश डालने का भरसक प्रयत्न रहेगा। मानता हूँ मैं अल्पज्ञानी हूँ और इस योग्य भी नहीं कि वैदिक ग्रंथों पर टीका-टिप्पणी कर सकूँ,फिर भी प्रयास करूंगा।इस हठधर्मिता और दम्भिकता के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ। "अहिंसा परमो धर्मः---"यह सूक्ति महाभारत से उद्धरित है,यह अपूर्ण है और उसी रूप में है,जिस रूप में अधिकांशतः लोगों को विदित होगा। पूर्ण श्लोक इस प्रकार है :- "अहिंसा परमो धर्मः। धर्म हिंसा तथैव चः।।" अर्थात-अहिंसा के जैसा कोई धर्म नहीं,धर्म संरक्षण के लिए की गई हिंसा भी धर्म है। मुझे लगता है,कई लोग इस अर्थ का अनर्थ निकालने लगेंगे।कुछ तो ये भी कह बैठेंगे कि देखो सनातन में भी 'जिहाद'!पर बंधुओं और भगिनियों! मन-नद्य के पुलिनों पर धैर्य के बाँध बांधे रखो। 'धर्म' शब्द की व्यापकता आंग्ल शब्द 'रिलिजन' में नहीं समाहित की जा सकती।यह शब्द इतना व्यापक है कि कई पुस्तकालय इसके विश्लेषण से भर जाएं,क्योंकि प्रत्येक जीव का अपना धर्म है-पशुओं का,पक्षियों का,सरीसृपों का,यहाँ तक कि जीवाणुओं का भी!मानव के धर्म अन्...

प्रेम

  मेरा ह्दय भी प्रेमयुत है, हा! जो  दीखता पाषाण, सच, यह मेरी कहानी मान। प्रथम-दृष्ट्वा ही भा गई वह, मेधा-सदृश बन,छा गई वह। होने लगी सब ओर ही, उसकी सुरूचि छवि विद्यमान। वर्ण अतीव गौर-दधिमुख था; उसे देख पाता चिर-सुख था। मानस में उसकी छवि थी, प्रत्यक्ष-परोक्ष सभी समान। वह रूपवती व गुणवती थी, अतुल असाधारण भवती थी। नाम के अनुरूप सत्तम- रमणी,थी शील का प्रतिमान। संध्या-सधनतम  केश उसके, कपोल थे अरुण-देश,उसके अलक लपकते साँप सदृश, दंशते   रहते   मेरे   प्राण !   उसके नयन थे मीन-चंचल, मुख-हाव-भाव थे सरिता-जल। उसके कौमुदी-हास पर, पिघल जाता कोई पाषाण! गाती थी जब पद्य-ऋचाएं! कैसे तुम्हें?क्या-क्या बताएं? मानो वीणा के तार से- मृदुरस,झंकार उठते तान। वाद्य पर करती थी अभ्यास, किया करती वो हास-विहास। स्मृति मात्र से भर आते, हैं आज  भी  ये   मेरे   कान। माना मार्ग कुछ बँट से गए, हम अवश्य कुछ कट से गए। उसके परिचित-जन से ही- सुना;लेती थी मेरा भान। सच यह मेरी कहानी मान। ©ऋतुपर्ण

गाँव की साँझ

  ■कविता■ एक साँझ गाँव में लेटा हुआ   पीठ के  बल  खाट पर, अनिमिष ही लगा निहारने  मैं क्षितिज पुतली में भरकर। तिरोभूत  हो  गए  रवि, थे   शशांक  हो रहे भासमान पश्चिम में  बिखरे  गेरू -सा   दीखने  लगा  आसमान। लौट रहे  सब  श्रांत  प्राणधर   अपने  रैन  बसेरे  में, चहक उठे  पंछी  गण  अपने   नीड़, कोटरे, डेरे  में। लगी ज्योत्स्ना छाने औ'  रूपहले रूप तारक दिखाने, खे-खेकर पालों की  नौका   पार  पवन  लगे  लगाने। विद्युत की प्रभूत प्रभास में  छिटपुट जुगनू तेजहीन, थे झीं-झीं करते चहुओर  गिटार लिए झींगुर-प्रवीण। कीट-पतंगे  नाच- नाचकर  ना  जाने  क्या पाते थे, उलूक तथा चमगादड़  गगन में करतब दिखलाते थे। शरभ प्राण के दाँव लगा   बल्बों के घूर्णन करते थे, भीतों पर छिपकली छिप- छिपकर आखेटन करते थे। ©ऋतुपर्ण

कोरोना

    कोरोना महामारी    *हास्य*   ठहरी हुई जिंदगी किस दिन पहिए घुरकाएगी? भीड़,गाड़ियाँ,हाट-मंडियाँ पहले-सी छाएगी। फिर होगें धर कब एक और मुंड बसों में दो-दो! मेट्रो व रेलगाडियाँ,मालगाड़ी बन कब धाएँगी? कब होंगें रेलमपेल पूर्व के-से भीड़-भड़क्का? देह रगड़ कर त्वचा छील ले ऐसी धक्कम-धक्का। तोंद तोंद से भिड़ जाए औ' कोहनी से कोहनी, सीटें अतिक्रमण के क्रम में हो कब मुक्कम-मुक्का! स्वेद-कण लहू-सदृश तप्त;अयास ही टपक उठे फिर। मोजे की गंध सड़ायँध लाशों-सी महक उठे फिर। अविराम रहें सड़कों पर वाहन की आवाजाही। भोंपू के स्वर कर्कशता से माथे टहक उठे फिर। हाटों तथा मंडियों में पुनः लगे जोर के बोल, कुँजड़िन भाजी के गुणगान कर,दे तरकारी मोल। "दस के पाव,चालीस किलो;न्यूनतम आधा ले लो। भैया विचार क्यों?धनिया भी मुफ्त की दे दूं  तोल!" यदि मिले मित्र से मित्र आलिंगन हो,न अभिवादन। कर सके बेधड़क फिर हम "गली-भोज्य" का आस्वादन। मंजुल मुख से हटे आवरण श्वास रोधने वाला, अब तो बस अविलंब हो इस दुर्घट दुःख का मर्दन। ©ऋतुपर्ण

अपील(कहानी)

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  कहानी -------- शाम का प्रहर था।अभी सूरज का अस्ताचल गमन हुआ ही था,उसके उपरांत भी उसकी लोहित आभा अभी गाँव की धरती पर सुर्ख-झीना चादर ओढ़ाए थी। तभी यकायक गाय रंभाने लगी।हवेली में कृष्णाष्टमी की पूजा का धूम मचा था।अतएव व्यस्त होने के कारण गोपालक,माघव चौधरी, ने तत्काल कारण जानना उचित नहीं जाना और अनसुना कर कार्यरत रहे। सुलेखा देवी कुर्सी पर बैठी-बैठी पुत्र को संबोधन करती बोलीं-"अरे माघव,जरा देख आ इस गैया को क्या हुआ?" बिजली के बोर्ड से पिन जोड़ते हुए माघव बोला-"रहने भी दो...हमें कन्हैया की पड़ी है और तुम गैया गैया गैया..." "पशु का अकारण इस प्रकार विलखना ठीक नहीं जान पड़ता।" उसकी तरफ मुँह कर कड़कर-"इतनी ही चिंता है तो बथान देख क्यों नहीं आती!" "मैं जोड़ो के दर्द से मरी जा रही हूँ।घूमना-टहलना तो दूर बस चल फिर लेती हूँ...ईश्वर की कृपा है।"- घुटने पकड़कर दीन भाव से बोली। बिजली का बल्ब लगाते हुए- "ये कौन सी नई बात है!परिवार भर में कौन है जो इसका मारा न हो...बाबूजी,बिट्टू,मैं,उसकी माँ सब तो वैसे ही हैं।" "सब भाग्य का दोष है और पूर्वजन्म ...

मधुमालती छन्द

मधुमालती एक सम मात्रिक छन्द है। विधान – प्रत्येक चरण में 14 मात्राएँ, अंत में 212 वाचिक भार होता है, 5-12 वीं मात्रा पर लघु अनिवार्य होता है । मापनी-लालालला(२२१२)लालालला(२२१२) उदाहरण एवं समीक्षा हेतु~ श्री कृष्ण यूँ कुछ ज्ञान दो, मेरी पृथक पहचान दो। धुन वेणु की कोई सुभग, भर दो सहज कर दो अलग। धुन सुन हुलस यह मन उठे, पुलकित हृदय क्षण-क्षण उठे । रोके न भव बंधन हमें। उपकार में ही हम रमें । चंचल हृदय यह धीर हो, अन्तः कुशल गंभीर हो। मनमोहना बस कामना, मानस फले सद्भावना! ©ऋतुपर्ण