कोरोना

   कोरोना महामारी   *हास्य*

 

ठहरी हुई जिंदगी किस दिन पहिए घुरकाएगी?
भीड़,गाड़ियाँ,हाट-मंडियाँ पहले-सी छाएगी।
फिर होगें धर कब एक और मुंड बसों में दो-दो!
मेट्रो व रेलगाडियाँ,मालगाड़ी बन कब धाएँगी?

कब होंगें रेलमपेल पूर्व के-से भीड़-भड़क्का?
देह रगड़ कर त्वचा छील ले ऐसी धक्कम-धक्का।
तोंद तोंद से भिड़ जाए औ' कोहनी से कोहनी,
सीटें अतिक्रमण के क्रम में हो कब मुक्कम-मुक्का!

स्वेद-कण लहू-सदृश तप्त;अयास ही टपक उठे फिर।
मोजे की गंध सड़ायँध लाशों-सी महक उठे फिर।
अविराम रहें सड़कों पर वाहन की आवाजाही।
भोंपू के स्वर कर्कशता से माथे टहक उठे फिर।

हाटों तथा मंडियों में पुनः लगे जोर के बोल,
कुँजड़िन भाजी के गुणगान कर,दे तरकारी मोल।
"दस के पाव,चालीस किलो;न्यूनतम आधा ले लो।
भैया विचार क्यों?धनिया भी मुफ्त की दे दूं  तोल!"

यदि मिले मित्र से मित्र आलिंगन हो,न अभिवादन।
कर सके बेधड़क फिर हम "गली-भोज्य" का आस्वादन।
मंजुल मुख से हटे आवरण श्वास रोधने वाला,
अब तो बस अविलंब हो इस दुर्घट दुःख का मर्दन।


©ऋतुपर्ण

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