अहो देव दयानिधे करूणेश ! असहाय तुम छोड़ गए किस देश? हमारे सब आर्तनाद चीत्कार। लौटे प्रतिध्वनि बनकर हर बार। खोजे पूजालय सब बहु प्रकार, वे करवाते थकते न मनुहार। नक्षत्र,चंद्र और तारक लोक, है देख चुके हम सब विलोक! नहीं मिलती कहीं तुम्हारी थाह, फिर भी बलवती रहती है चाह! हे राम,कृष्ण,बुद्ध हरि-अवतंस। इस बार उद्भूत हुए किस वंश? भव्य-भूमि-भव भर के धर्म केतु, मनुज-मनुज के सद्भाव सु-सेतु। पूछूँ यदि मिले हमें किसी ठौर, क्या यही तुम्हारा मित्रवत-तौर? जाते हो कूप के तल में बोर, हमें हा किसके हाथों में छोड़! किस हेतु हमें इस भव रव में झोंक, छिप जाते हो किस लोक के ओक! ©ऋतुपर्ण
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