प्रेम

 मेरा ह्दय भी प्रेमयुत है,

हा! जो  दीखता पाषाण,

सच, यह मेरी कहानी मान।


प्रथम-दृष्ट्वा ही भा गई वह,

मेधा-सदृश बन,छा गई वह।

होने लगी सब ओर ही,

उसकी सुरूचि छवि विद्यमान।


वर्ण अतीव गौर-दधिमुख था;

उसे देख पाता चिर-सुख था।

मानस में उसकी छवि थी,

प्रत्यक्ष-परोक्ष सभी समान।


वह रूपवती व गुणवती थी,

अतुल असाधारण भवती थी।

नाम के अनुरूप सत्तम-

रमणी,थी शील का प्रतिमान।


संध्या-सधनतम  केश उसके,

कपोल थे अरुण-देश,उसके

अलक लपकते साँप सदृश,

दंशते   रहते   मेरे   प्राण !


 उसके नयन थे मीन-चंचल,

मुख-हाव-भाव थे सरिता-जल।

उसके कौमुदी-हास पर,

पिघल जाता कोई पाषाण!


गाती थी जब पद्य-ऋचाएं!

कैसे तुम्हें?क्या-क्या बताएं?

मानो वीणा के तार से-

मृदुरस,झंकार उठते तान।


वाद्य पर करती थी अभ्यास,

किया करती वो हास-विहास।

स्मृति मात्र से भर आते,

हैं आज  भी  ये   मेरे   कान।


माना मार्ग कुछ बँट से गए,

हम अवश्य कुछ कट से गए।

उसके परिचित-जन से ही-

सुना;लेती थी मेरा भान।

सच यह मेरी कहानी मान।

©ऋतुपर्ण

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