अहिंसा परमो धर्म
आज इस प्रेषण के अंतर्गत 'सनातन' के कुछ बिंदुओं पर प्रकाश डालने का भरसक प्रयत्न रहेगा।
मानता हूँ मैं अल्पज्ञानी हूँ और इस योग्य भी नहीं कि वैदिक ग्रंथों पर टीका-टिप्पणी कर सकूँ,फिर भी प्रयास करूंगा।इस हठधर्मिता और दम्भिकता के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ।
"अहिंसा परमो धर्मः---"यह सूक्ति महाभारत से उद्धरित है,यह अपूर्ण है और उसी रूप में है,जिस रूप में अधिकांशतः लोगों को विदित होगा।
पूर्ण श्लोक इस प्रकार है :-
"अहिंसा परमो धर्मः।
धर्म हिंसा तथैव चः।।"
अर्थात-अहिंसा के जैसा कोई धर्म नहीं,धर्म संरक्षण के लिए की गई हिंसा भी धर्म है।
मुझे लगता है,कई लोग इस अर्थ का अनर्थ निकालने लगेंगे।कुछ तो ये भी कह बैठेंगे कि देखो सनातन में भी 'जिहाद'!पर बंधुओं और भगिनियों! मन-नद्य के पुलिनों पर धैर्य के बाँध बांधे रखो।
'धर्म' शब्द की व्यापकता आंग्ल शब्द 'रिलिजन' में नहीं समाहित की जा सकती।यह शब्द इतना व्यापक है कि कई पुस्तकालय इसके विश्लेषण से भर जाएं,क्योंकि प्रत्येक जीव का अपना धर्म है-पशुओं का,पक्षियों का,सरीसृपों का,यहाँ तक कि जीवाणुओं का भी!मानव के धर्म अन्यान्य की तुलना में गुरु है क्योंकि वह समाज में बसता है।समाज का अर्थ भी संकुचित परिप्रेक्ष्य से नहीं देखा जाना चाहिए अर्थात परिवार,अड़ोस-पड़ोस,राज्य,देश आदि सब समाज हैं।
मानव के धर्म भी के भी उपभेद हैं:-साधारण एवं आपद।साधारण धर्म वह,जो व्यक्ति सामान्तया अनुशीलन करता है जैसे-प्रेम,करुणा,दान,अहिंसा,न्याय,सदाचार।और आपद्धर्म वह है,जो आपदा के समय अनुकरण किया जाना चाहिए।
उदाहरण स्वरूप-आप अपने पुत्र/पुत्री के साथ वन-मार्ग से जा रहें हैं अचनाक झाड़ियों में हलचल होती है और एक शेर सामने आकर बच्चे पर लपकता है।इस समय आपके सामने जो स्थिति प्रस्तुत है,वह है आपद की।इस स्थिति में आपका धर्म 'रक्षक-धर्म' है।किसी भाँति हिंसा तक कर बच्चे की रक्षा!
हिंसा के भी नियम होने चाहिए,जब अहिंसा के सारे मार्ग बंद हो जाए,जब कोई चारा न बचे,जब कोई भी सहायता को नहीं आए,तब शस्त्र उठाने चाहिए।महाभारत में भी पांडव युद्ध को सदा से सबल थे,पर अनुग्रह का मार्ग तब तक नहीं छोड़ा,जब तक कि सारे शांति के मार्ग रुद्ध हो गए।
अब अभी के परिवेश को ही लीजिए।भारत और चीन के बीच जो कुछ तनाव है,उसे शांति से निपटाने के वजाय यदि भारत युद्ध की घोषणा करे तो यह धर्म और सभ्यता विरुद्ध होगा।भारत तभी रणभेड़ी फूंकेगा,जब युद्ध का मार्ग ही अपरिहार्य हो जाए।
पूर्णतया क्षमाशीलता भी कायरों और असमर्थों की ही पहचान होती है।रामधारी सिंह दिनकर जी की पंक्ति है:
"सच पूछो, तो शर में ही,
बसती है दीप्ति विनय की।
सन्धि-वचन संपूज्य उसी का,
जिसमें शक्ति विजय की।
सहनशीलता, क्षमा, दया को,
तभी पूजता जग है।
बल का दर्प चमकता उसके,
पीछे जब जगमग है।"
धर्म शब्द का ऐसा ही व्यापक अर्थ श्री भवद्गीता जी के अध्याय ३,श्लोक-३५ में वर्णित है।
"श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥"
अर्थ:-अच्छी प्रकार आचरण में लाए हुए दूसरे के धर्म से गुण रहित भी अपना धर्म अति उत्तम है। अपने धर्म में तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरे का धर्म भय को देने वाला है।
इसका सोदाहरण गूढार्थ समझिए; यदि आप सात्विक हैं,किंतु इस धर्म का अक्षरशः अनुपालन नहीं करते,फिर भी आपका धर्म उस सात्विक के धर्म से श्रेयस्कर है,जो अब सात्विकता त्याग कर 'कसाई धर्म' (अकारण हिंसा,मार-काट,परपीड़ा के कार्य मे संलिप्त निर्मम व्यक्ति) का पूर्णतया अनुपालन करने लगा है।
आशा है यह लेख आपको पसंद आया होगा,साथ ही आपने मुझे अल्पज्ञता के लिए क्षमा भी कर दिया होगा।
◆ध्यातव्य:-किसी धर्म की आलोचना मेरा ध्येय नहीं था।इस लेख की आजके समय से प्रासंगिकता जान पड़ी सो लिख दिया।
💐लोकाः समस्ताः सुखिनो भवन्तु!💐
©ऋतुपर्ण
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